Friday, February 24, 2012

उलझनें

उलझनें यूँ उलझ गई है ,
की अब सुलझती नहीं ,

कभी  हँसता  हूँ  तो लगता है कोई देख ना ले ,
कोई नज़र ना लगा दे ,
जिंदगी यूँ उदास हो गई है,
की मुस्कुराती नहीं,

वही दुःख भरे मंज़र नज़र आते है हर वक्त ,
हर पहेर ,
वक्त कुछ ठहर सा गया है ,
की अब बढता नहीं ,


हमें अपनी जिंदगी से ना कोई गम ,
ना शिकवा रहा कभी ,
आपके साथ जीने का अरमा रहा ना कभी ,
ये यादों के बोझ ,
ये बोझ इतने बोझिल हो गये,
की सम्हलते नहीं ,

बहुत खोजता हू नए रास्ते होंगे कही,
राह कुछ भटक सा गया हूँ ,
की कोई हाथ थामता नहीं ,

कोई रात सा मंज़र लगता है  ,
कोई तूफान सा अहसास है अभी ,
रोशनी कुछ मिट सी गई है,
आरजू यूँ बिखर सी गई है की ,
की साथ होती नहीं ,



उलझनें यूँ उलझ गई है ,
की अब सुलझती नहीं ,




6 comments:

  1. उलझन में उलझे बिना उलझन नहीं सुलझती
    खुद का हाथ थाम लो ....

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  2. achchhi lagi tumhari kavita. jaan kar khushi hui ki chhotu bada ho raha hai dheerey dheerey aahista aahista.

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  3. bilkul sahi baat kahi mamaji ,,me kosis kar raha hu ,

    and thanks bhaiya

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  4. i am very surprised to see u as a writer.nice poem.i congratulate you to create such impressive lines.

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  5. thanks bhabhi aapka blog bhi kafi impressive laga ,mujhe bhi nahi pata tha aap bhi kavta likhti hai

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धूल में उड़ते कण

धूल में उड़ते कण -सुशांत