Monday, March 5, 2012

अंत से शुरुवात

कहाँ से करू शुरू ,
सब अंत सा लगने लगा ,
ना जाने क्यों ,
जिस्म का हर दाग अब,
ज़ख़्म सा लगने लगा ,

लोग कहते है सब ठीक होगा ,
ये शब्द भी अब ,
भ्रम सा लगने लगा ,

जब मुसाफिर ही रुक जाए अपने रास्ते पर,
तब हर शख्स ,
कुछ गरम सा लगने लगा ,

दुनिया को देखने का नजरिया भी ,
कुछ बदला बदला सा लगने लगा ,

हर वक्त देता हूँ खुशी के दिलासे ,
इस पागल दिल को ,
फिर भी,
 ना जाने क्यों ,
ये कुछ भरा सा लगने लगा,

सब कुछ तो पाया इस जहाँ में 'सुशान्त',
फिर भी क्यों कुछ बचा सा लगने लगा .,.. 


4 comments:

  1. सब कुछ तो पाया इस जहाँ में 'सुशान्त',
    फिर भी क्यों कुछ बचा सा लगने लगा .,..
    यह बचा सा ही तो आगे बढ़ने को प्रेरित करती रहती है ..
    सुन्दर भाव

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    Replies
    1. धन्यवाद मामाजी ,,सही कहा आपने शायद ये बचा ही प्रेरित कर रहा है आगे बढ़ने को

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  2. लगता है हमारी वाणी में फिर से सदस्यता लेनी होगी
    या फिर इनके लिंक्स को पोस्ट डालने के बाद क्लिक नही करते हो ..
    कमेंट्स कम आ रहे हैं

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  3. fantabulous,,,,ek book publish karva he lena...carry on!!!!!!

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धूल में उड़ते कण

धूल में उड़ते कण -सुशांत