बांध
दिए जाने और ख़त्म हो जाने की बीच से जाने वाली
संकरी
गलियों में वो जूझता रहा
शब्दों
के तहखाने से बहुत दूर निकल चुका
वापसी
में अपने ही पदचिन्हों को ढूंडने की नाकाम कोशिश करता
बहुत
कुछ पाने की चाहत में
उसने जो
बचाया था वो भी ख़त्म कर दिया
और अब अपनी
ही बनाई भूलभुलैया में खुद को तलाशता
भटकता
है सुबह-शाम
जंगल की
अज्ञात कुटिया में
लालटेन
की बुझती हुई रौशनी की आड़ में
वो अपनी
परझाई को टटोलते हुए
ज़मी पर
लिख रहा था
कलम
मरती है तो बहुत कुछ मर जाता है......
No comments:
Post a Comment