कुछ पल फ़ुरसत से
कुछ ख्याल फ़ुरसत के पलों के ,,,जो आपसे अन्छुवे से है
Saturday, November 17, 2018
Friday, August 24, 2018
धूल में उड़ते कण
हवा के थपेड़ों से गिरता रहा इधर-उधर
मकसद क्या था,कहाँ था जाना
कुछ खबर न थी
बस बहता रहा इस नदी से उस नदी तक
इस डगर से उस डगर
जिसने जिधर चाहा बहा लिया
अपने रास्तों को पहना दिया
ठहरना चाहता था मै
लौटना था वापस अपने शून्य में
या पाना था उस शिखर को
जहाँ पहुँच कर जीवन की तमाम
उलझनों को एक ब एक सुलझाना था
पर लगता है जैसे बहुत देर हो चुकी है
शाम के अंधियारों ने रास्तों को धुंधला कर दिया
है
और कोई हमसफ़र भी नहीं दिखता दूर तक
रास्ते अधूरे हैं मंजिल अज्ञात है
ये उदासी
जैसे जाड़े की सर्द सुनसान रात में आग की लपटों
को ताकते
किसी आदिम के आँखों से बहता आंसू हो
जैसे किसी मोमबत्ती के जलने से रिसता पिघला मोम हो
या की जैसे सीली दीवारों के रंगों में घुलता
पानी हो
और उस बदरंग होती दीवार के सहारे टिकाये बाल्टी
में गिरते
बूंदों की टिपटिपाहट का सूनापन हो
जो हमसफ़र थे उनकी यादों की परछाई को समेट कर
फिर अलविदा कहने का वक्त है
मिलेंगे फिर किसी रोज़ चौराहों पर रास्तों का पता
पूछते हुए
और फिर उधर मुड जायेंगे जिधर हवा बहा ले जाये
Wednesday, June 13, 2018
हे बापू
हम आये है यहाँ फिर एक बार तुम्हे वापस वतन ले जाने
को
निकलो अब इस मूरत से और चलो हमारे साथ
आज हिसां की आग में लिपटा मेरा वतन
तुम्हारी अहिंसा को भूल बैठा है
कॉर्पोरेट में जीता वतन
तुम्हारे ग्राम स्वराज को भूल बैठा हैं
आओ अब लौट चलें
हिंसा पर अहिंसा का और असत्य पर सत्य का परचम लहराएँ
कमजोरों की ताकत बने , असंगठित को संगठित बनायें
चलो बापू तुम्हारे सपनों को पूरा करें
Sunday, September 10, 2017
कलम मरती है तो बहुत कुछ मर जाता है
बांध
दिए जाने और ख़त्म हो जाने की बीच से जाने वाली
संकरी
गलियों में वो जूझता रहा
शब्दों
के तहखाने से बहुत दूर निकल चुका
वापसी
में अपने ही पदचिन्हों को ढूंडने की नाकाम कोशिश करता
बहुत
कुछ पाने की चाहत में
उसने जो
बचाया था वो भी ख़त्म कर दिया
और अब अपनी
ही बनाई भूलभुलैया में खुद को तलाशता
भटकता
है सुबह-शाम
जंगल की
अज्ञात कुटिया में
लालटेन
की बुझती हुई रौशनी की आड़ में
वो अपनी
परझाई को टटोलते हुए
ज़मी पर
लिख रहा था
कलम
मरती है तो बहुत कुछ मर जाता है......
Monday, March 27, 2017
Sunday, February 26, 2017
नज़र तुम आती हो
संवारता
हूँ तुझको
तेरी
जुल्फों से खेलता हूँ
तेरी
माथे की लकीरों को पढता हूँ बार बार
और अपने
ख्यालों को उनमें पिरो देता हूँ
फिर एक
छोटा सा काला टीका लगा
सारी दुनिया
से छुपा लेता हूँ तुमको
इस तरह हर
बार जब
देखता
हूँ आईने में खुद को
नज़र तुम
आती हो
ढलती
शाम यादों की तश्तरी लेकर
दिल में
उतर जाती है
धीरे
धीरे शाम को तन्हां कर जाती है
टटोलता
हूँ अपने मन को तो
तेरे अहसास
में मेरी आवाज घुल जाती हैं
ख्वाइशें
करता हूँ तेरे पास आ जाने की
तो तेरी
महक से रूह भी महक जाती है
ओर
देखता हूँ आईने में खुद को
तुम नज़र
आती हो
रूठता
हूँ तुमसे तो ख्यालों में
तुम उधम
मचाती हो
आखों से
अपने यमुना बहती हो
मै ठहर
जाता हूँ
स्वप्न
से तुमको जगाता हूँ
ख्यालों
की गठ्ठारियों को खोलकर
तुझमें
समां जाता हूँ
और इस
तरह हर बार जब
देखता
हूँ आईने में खुद को
नज़र तुम
आती हो
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धूल में उड़ते कण -सुशांत
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