Sunday, February 26, 2017

नज़र तुम आती हो


संवारता हूँ तुझको
तेरी जुल्फों से खेलता हूँ
तेरी माथे की लकीरों को पढता हूँ बार बार
और अपने ख्यालों को उनमें पिरो देता हूँ
फिर एक छोटा सा काला टीका लगा
सारी दुनिया से छुपा लेता हूँ तुमको
इस तरह हर बार जब
देखता हूँ आईने में खुद को
नज़र तुम आती हो

ढलती शाम यादों की तश्तरी लेकर
दिल में उतर जाती है
धीरे धीरे शाम को तन्हां कर जाती है
टटोलता हूँ अपने मन को तो
तेरे अहसास में मेरी आवाज घुल जाती हैं
ख्वाइशें करता हूँ तेरे पास आ जाने की
तो तेरी महक से रूह भी महक जाती है
ओर देखता हूँ आईने में खुद को
तुम नज़र आती हो

रूठता हूँ तुमसे तो ख्यालों में
तुम उधम मचाती हो
आखों से अपने यमुना बहती हो
मै ठहर जाता हूँ
स्वप्न से तुमको जगाता हूँ
ख्यालों की गठ्ठारियों को खोलकर
तुझमें समां जाता हूँ
और इस तरह हर बार जब
देखता हूँ आईने में खुद को

नज़र तुम आती हो

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धूल में उड़ते कण -सुशांत