संवारता
हूँ तुझको
तेरी
जुल्फों से खेलता हूँ
तेरी
माथे की लकीरों को पढता हूँ बार बार
और अपने
ख्यालों को उनमें पिरो देता हूँ
फिर एक
छोटा सा काला टीका लगा
सारी दुनिया
से छुपा लेता हूँ तुमको
इस तरह हर
बार जब
देखता
हूँ आईने में खुद को
नज़र तुम
आती हो
ढलती
शाम यादों की तश्तरी लेकर
दिल में
उतर जाती है
धीरे
धीरे शाम को तन्हां कर जाती है
टटोलता
हूँ अपने मन को तो
तेरे अहसास
में मेरी आवाज घुल जाती हैं
ख्वाइशें
करता हूँ तेरे पास आ जाने की
तो तेरी
महक से रूह भी महक जाती है
ओर
देखता हूँ आईने में खुद को
तुम नज़र
आती हो
रूठता
हूँ तुमसे तो ख्यालों में
तुम उधम
मचाती हो
आखों से
अपने यमुना बहती हो
मै ठहर
जाता हूँ
स्वप्न
से तुमको जगाता हूँ
ख्यालों
की गठ्ठारियों को खोलकर
तुझमें
समां जाता हूँ
और इस
तरह हर बार जब
देखता
हूँ आईने में खुद को
नज़र तुम
आती हो
बढ़िया
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