Friday, August 24, 2018

धूल में उड़ते कण


हवा के थपेड़ों से गिरता रहा इधर-उधर 
मकसद क्या था,कहाँ था जाना
कुछ खबर न थी
बस बहता रहा इस नदी से उस नदी तक
इस डगर से उस डगर
जिसने जिधर चाहा बहा लिया
अपने रास्तों को पहना दिया

ठहरना चाहता था मै
लौटना था वापस अपने शून्य में
या पाना था उस शिखर को
जहाँ पहुँच कर जीवन की तमाम
उलझनों को एक ब एक सुलझाना था
पर लगता है जैसे बहुत देर हो चुकी है
शाम के अंधियारों ने रास्तों को धुंधला कर दिया है
और कोई हमसफ़र भी नहीं दिखता दूर तक
रास्ते अधूरे हैं मंजिल अज्ञात है

ये उदासी
जैसे जाड़े की सर्द सुनसान रात में आग की लपटों को ताकते
किसी आदिम के आँखों से बहता आंसू हो
जैसे किसी मोमबत्ती के जलने से रिसता पिघला मोम हो
या की जैसे सीली दीवारों के रंगों में घुलता पानी हो
और उस बदरंग होती दीवार के सहारे टिकाये बाल्टी में गिरते
बूंदों की टिपटिपाहट का सूनापन हो

जो हमसफ़र थे उनकी यादों की परछाई को समेट कर
फिर अलविदा कहने का वक्त है
मिलेंगे फिर किसी रोज़ चौराहों पर रास्तों का पता पूछते हुए
और फिर उधर मुड जायेंगे जिधर हवा बहा ले जाये

Wednesday, June 13, 2018


हे बापू
हम आये है यहाँ फिर एक बार तुम्हे वापस वतन ले जाने को
निकलो अब इस मूरत से और चलो हमारे साथ
आज हिसां की आग में लिपटा मेरा वतन  
तुम्हारी अहिंसा को भूल बैठा है
कॉर्पोरेट में जीता वतन
तुम्हारे ग्राम स्वराज को भूल बैठा हैं

आओ अब लौट चलें
हिंसा पर अहिंसा का और असत्य पर सत्य का परचम लहराएँ
कमजोरों की ताकत बने , असंगठित को संगठित बनायें
चलो बापू तुम्हारे सपनों को पूरा करें

इस मौसम की धुंध में मैं तुम्हे साफ़ देख पा रहा हूँ 
पहले से भी ज्यादा साफ़ 
और ये हवाएं जो तुम्हारे आंगन से दौड़ती चली आ रही है 
मेरे कानों में जो कह रही हैं
उसमें मैं तुम्हे महसूस कर सकता हूँ
अब तुम आओ या न आओ
मै यहीं ठहरे तुम्हारा इंतज़ार करूँगा ...ताउम्र



Sunday, September 10, 2017

कलम मरती है तो बहुत कुछ मर जाता है

बांध दिए जाने और ख़त्म हो जाने की बीच से जाने वाली
संकरी गलियों में वो जूझता रहा
शब्दों के तहखाने से बहुत दूर निकल चुका
वापसी में अपने ही पदचिन्हों को ढूंडने की नाकाम कोशिश करता   

बहुत कुछ पाने की चाहत में
उसने जो बचाया था वो भी ख़त्म कर दिया
और अब अपनी ही बनाई भूलभुलैया में खुद को तलाशता
भटकता है सुबह-शाम

जंगल की अज्ञात कुटिया में
लालटेन की बुझती हुई रौशनी की आड़ में
वो अपनी परझाई को टटोलते हुए
ज़मी पर लिख रहा था
कलम मरती है तो बहुत कुछ मर जाता है......


Sunday, February 26, 2017

नज़र तुम आती हो


संवारता हूँ तुझको
तेरी जुल्फों से खेलता हूँ
तेरी माथे की लकीरों को पढता हूँ बार बार
और अपने ख्यालों को उनमें पिरो देता हूँ
फिर एक छोटा सा काला टीका लगा
सारी दुनिया से छुपा लेता हूँ तुमको
इस तरह हर बार जब
देखता हूँ आईने में खुद को
नज़र तुम आती हो

ढलती शाम यादों की तश्तरी लेकर
दिल में उतर जाती है
धीरे धीरे शाम को तन्हां कर जाती है
टटोलता हूँ अपने मन को तो
तेरे अहसास में मेरी आवाज घुल जाती हैं
ख्वाइशें करता हूँ तेरे पास आ जाने की
तो तेरी महक से रूह भी महक जाती है
ओर देखता हूँ आईने में खुद को
तुम नज़र आती हो

रूठता हूँ तुमसे तो ख्यालों में
तुम उधम मचाती हो
आखों से अपने यमुना बहती हो
मै ठहर जाता हूँ
स्वप्न से तुमको जगाता हूँ
ख्यालों की गठ्ठारियों को खोलकर
तुझमें समां जाता हूँ
और इस तरह हर बार जब
देखता हूँ आईने में खुद को

नज़र तुम आती हो

धूल में उड़ते कण

धूल में उड़ते कण -सुशांत